Tuesday, July 8, 2014

खेल का बाज़ार और बाज़ार का खेल

- किशोर झा

फुटबॉल के महाकुम्भ के आखरी दौर के मैच शुरू हो चुके हैं और अगले हफ्ते तक यह फैसला भी हो जायेगा ये जंग कौन जीतेगा! पिछले तीन हफ़्तों से ये कायनात सूरज को छोड़ इस बॉल के इर्दगिर्द चक्कर लगा रही है! इन मैचों का रोमांच इस कदर छाया हुआ है कि लोग रात रात भर जाग कर मैच देख रहें है! जिन्होंने ता-उम्र सूर्योदय नहीं देखा वो सूर्य नमस्कार करते दिखाई देते हैं!

ये जनून बेवजह भी नहीं है! इस वर्ल्ड कप में अभी तक 154 गोल दागे जा चुके है जो शायद इस मुकाबले की तारिक में सबसे ज्यादा हैं! खेल के आगाज के पहले मिनट से लेकर आखिर के 120वें मिनट तक गोल दाग कर खेल का पासा पलटा जा चुका है! मेस्सी के छकाने का अंदाज़ और नेमार के फ्लिक्स किसी को भी अपना मुरीद बना सकते हैं! पर्सी के अविश्वशनिय हैडर की एक झलक की खातिर कोई भी अपनी रात काली कर सकता है! बस एक “बाइसिकल किक” की कमी रह गयी है, और उम्मीद करता हूँ कि फाइनल मैच तक यह ख्वाहिश भी पूरी हो जाएगी! हिंदुस्तान में बल्ले और बॉल के मुकाबले से बढ़ कर कुछ नहीं पर फिर भी मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि इस 90 मिनट के रोमांच की बात ही कुछ और है और इस वक़्त इस खेल का रोमांच अपने चरम पर है!

पर यह खेल अब मैदान के 100 ग़ज के दायरे तक सिमित नहीं रहा . इस बॉल पर अरबों खरबों के दाव लगें हैं!इस महाकुम्भ पर खर्च किये जाने वाली रकम में जितने शून्य लगते हैं वहां तक मुझे गिनती नहीं आती! खिलाडियों की नज़र महज विश्वकप जीतने तक ही नहीं बल्कि उनका “गोल” इससे आगे तक का है! दुनिया का कौन सा क्लब किस खिलाडी को किस कीमत पर खरीदेंगा वो इस प्रतियोगिता पर निर्भर करता है!

मेस्सी और नेमार के कौशल और दम ख़म का मैं भी दीवाना हूँ! उनका यह कौशल महज रुपय-पैसो में नहीं आँका जा सकता! पर फिर भी उन्हें अपने हूनर की उचित कीमत मिलनी ही चाहिए! कोई नहीं चाहेगा कि इन महान खिलाडियों को अपने तमगे बेच कर घर चलाना पड़े! पर कीमत के तौर पर लगभग 600 करोड़ रुपये का मेहनताना एक वाहियात मजाक है! हो सकता है इस विश्वकप में खेलने वाले खिलाडियों की कुल कीमत कई देशों के सकल घरेलु उत्पाद से अधिक हो!

ब्राज़ील के कई लोग इस विश्व कप की खिलाफ़त कर रहे हैं! इस आयोजन का विरोध करने वाले फुटबॉल के ख़िलाफ़ नहीं! फुटबॉल तो ब्राज़ील की आवाम के रग रग में बसी है! वो लोग उस फिजूल खर्ची की मुखाल्फत कर रहें है जो इस महाकुम्भ के आयोजन में हो रही है! क्योंकि उनका कहना है कि जितना पैसा इस विश्वकप के आयोजन में लगा है उससे लाखो लोगों को मूलभूत सेवाएँ मुहैया कराइ जा सकती थी!

हर अखबार का मुख्य पृष्ठ नेमार, मेस्सी, म्युलर और रोड्रिक्स की तस्वीरों से पटा हुआ हैं! विश्व कप की ख़बरों ने इराक के संकट को पीछे छोड़ दिया है! पिछले महीने चंदा नाम की पर्वतारोही कंचनजंगा पर चढ़ाई करते हुए मारी गयी! यह खबर विश्व कप की खबरों की भीड़ में कहीं खो गयी! अगर विश्वकप में एक खिलाडी को छींक आ जाये तो बड़ी खबर बन जाती है पर चंदा के लिए इनके पास जगह नहीं! सच्चाई यह है कि इस बाज़ार में नेमार बिकता है चंदा नहीं!

खिलाडियों के साथ साथ मीडिया को उनके निजी रिश्तों में भी काफी दिलचस्पी है! “रिश्ते” मतलब सिर्फ चटपटे रोमांटिक रिश्ते! सभी अख़बारों में लगभग आधा पेज खिलाडियों की प्रेमिकाओं और बीविओं को समर्पित है! “कौन किसकी पत्नी है और कौन किसकी प्रेमिका” इससे न्यूज़ चैनल्स की टी. आर. पी. तय हो रहीं हैं! दुनिया के मशहूर मॉडल्स और फुटबाल खिलाडियों के बीच एक अलौकिक रिश्ता है! इन दों पेशों के बीच बनने वाले संबंधों के बीच जो नजदीकी सहसंबंध गुणांक ( correlation coefficient) है वो शायद ही आपको कहीं और देखने को मिले!

एक दुसरे से संबंधों के कारण जो “लोकप्रियता” इनको मिलती है वो किसी फिल्म के सफल होने या एक मैच में तीन गोल दागने से कहीं ज्यादा है! जितनी ज्यादा “लोकप्रियता” उतनी ही बाज़ार में ज्यादा कीमत! जितना मुनाफा रिश्ते बनाने में है उससे कहीं ज्यादा तोड़ने में या बेवफाई करने में. बाज़ार का यह हिसाब किताब थोडा पेचीदा जरूर है पर है दिलचस्प!

यह विश्व कप कौन जीतेगा? आने वाले कुछ दिनों में हम सभी इसमें सर खपायेंगे .पर जानने वाले जानते है कि चाहे कोई भी जीते या कोई हारे …बाज़ार हर हाल में जीतेगा…..! लगी शर्त!

कहने वाले कहेंगे कि खेल के लिए पैसा चाहिए और पैसे के लिए बाज़ार! पर खेल के साथ बाज़ार का ये घालमेल सिर्फ पैसा नहीं लाता बल्कि खेल को बाजारू बना देता है! इसका सबसे सटीक उदहारण ऊपर दी गयी तस्वीर है! इस बाजारू व्यस्था में जहाँ एक बॉल पर अरबो खरबों रूपये दाव पर लगें है वहां लाखों बच्चों के पास खेलने के लिए एक बॉल नहीं है! जाते जाते यह भी बता दूं कि दुनिया भर में बनने वाली फुटबॉल का ७५-८०% हिस्सा पाकिस्तान के सिआलकोट और भारत के मेरठ शहर में बनता है जहाँ भारी तादात में बच्चे काम करते हैं जो शायद ही कभी फुटबॉल के मैदान तक पहुँच पायें!
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किशोर झा डेवलेपमेंट प्रोफेश्नल हैं और पिछले 20 साल से बाल अधिकारों के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। अपने छात्र जीवन के दिनों मैं प्रगतिशील छात्र संघ के सक्रिय सदस्य थे और फिलहाल न्यू सोशिलिस्ट इनिशिएटिव के साथ जुड़े हुए है।

Note: यह आर्टिकल hillele.org में पब्लिश हुई है।

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