Monday, April 4, 2016

एक गैर-आधुनिक समाज में फांसीवाद :- प्रतिरोध की संभावनाये एवं सीमायें


-स्वदेश कुमार सिन्हा

“आधुनिकता में तर्क बुद्धि और व्यक्ति का अधिकार निहित होता है”

                                  (रवि सिन्हा ,एक्टिविस्ट ,समाज वैज्ञानिक)


आज हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जिसमें नई व्यवस्था के ठग और गिरोहबाज जब अवैद्य वध की बात करते हैं तो उनका मतलब कत्ल कर दिये गये जीते जागते इन्सान से नही , मारी गयी एक काल्पनिक गाय से होता है। जब घटनास्थल से फोरेंसिक जांच के लिए सबूतउठाने की बात करते हैं  तो उनका मतलब मार डाले गये आदमी की लाश से नही फ्रीज में मौजूद भोजन से होता है। हम कहते हैं  कि हमने प्रगतिकी है लेकिन जब दलितो की हत्या होती है और उनके बच्चो केा जिन्दा जला दिया जाता है तेा हमला झेले , मारे जाने ,गोली खाये या जेल जाये बिना आज कौन सा लेखक बाबा साहब अम्बेडकर की तरह खुल कर कह सकता है कि ’’अछूतो के लिए हिन्दुत्व संत्रासों की एक वास्तविक कोठरी है ? कौन लेखक वह सब कुछ लिख सकता है जेा सआदत हसन मंटो ने अंकल सैम के लिए पत्रमें लिखा ? इस बात से फर्क कही पड़ता कि हम कही जा रही बात से सहमत हैं या असहमत। यदि हमें  स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार नही होगा तो हम बौद्धिक कुपोषण से पीडि़त मूर्खो के एक देश में बदल कर रह जायेंगे। पूरे उपमहाद्वीप में पतन की एक दौड़ चल रही है। जिसमें नया भारत भी जोश खरोश से शामिल हो गया है। यहाँ भी सेंसरशिप भीड़ को आउटसोर्स कर दी गयी है।
                                           -अरूंधति राय

इस लम्बे लेख के कुछ अंश ही आज के भारत के वास्तविक चित्र को सामने रख देते हैं । 1919 में गुरूदेव रविन्द्र नाथ ठाकुरने अंग्रेज सरकार से मिली नाइटकी पदवी लौटा दी थी जलियाँ वाला बागनरसंहार के लिए जिम्मेदार सरकारी नीतियों की मुखालिफत करने का यह उनका तरीका था। उन्होने एक लेख में लिखा थायह एक ऐसा समय है ,जब सम्मान के बिल्ले हमारे चतुर्दिक अपमान को और अधिक नुमाया करने लगे हैं ।  तब दौर उपनिवेशवाद का था आज हम एक स्वतंत्र सम्प्रभुता सम्पन्न लोकतांत्रिक देश हैं तथा संघ परिवार का फांसीवाद ,चुनाव लड़कर भारी समर्थन से सत्ता मेंआया है, तथा इससे कुछ भी फर्क नही पड़ता है कि उसके वोटो का प्रतिशत कितना है। संभवतः भारतीय इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि ’’संघ परिवार के फांसीवादी कदमो के विरोध में बड़े पैमाने पर साहित्यकारो , लेखको ,इतिहासकारो वैज्ञानिको तथा अकादमिकशियनों द्वारा प्रतिरोध के फलस्वरूप ’’साहित्य अकादमीतथा अन्य प्रकार के राजकीय पुरस्कारो तथा सम्मानो के वापसी  की घटना घटित हुयी है। पुरस्कारो की वापसी की यह परिघटना बहुत दिन तक नही चल सकती थी , और ऐसा ही हुआ। परन्तु संघ परिवार का फांसीवाद आज दूसरे दौर में पहुँच  गया है। 

हैदराबाद विश्वविद्यालय में दलित शोध छात्र ’’रोहित बेमुलाकी आत्महत्या जो एक तरह से संस्थानिक हत्या ही थी तथा जे.एन.यू. नयी छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैयासहित अनेक छात्र नेताओ की कथित राष्ट्र विरोधी नारो के नाम पर लम्बे समय तक की गिरफ्तारी का यह दौर पिछले समय से भी ज्यादा खतरनाक है। कथित अंधराष्ट्रवाद की जो बहस फांसीवादियों द्वारा चलायी जा रही है वह हमें उस दौर की याद दिलाती है जब नस्ल ,जाति तथा कथित जर्मन अन्धराष्ट्रवाद के नाम पर लाखो यहूदियों को गैस चैम्बरो में जला कर मार डाला गया था। जर्मनी , इटली ,स्पेन में फाॅसीवाद तथा नाजीवाद को इतना ब्यापक जन समर्थन हासिल नही था , क्योकि वे अपेक्षाकृत आधुनिक समाज थे। द्वितीय महायुद्ध की पराजय ने वहां पर फाॅसीवाद तथा नाजीवाद की कमर तोड़ दी थी। परन्तु हमारे देश में  स्थिति भिन्न है यहाँ के पिछड़े तथा गैर आधुनिक समाज में  जिसकी अधिरचना में अभी भी गहरे तक सामती मूल्य विद्यमान है। जनता की पिछड़ी मानसिकता का दोहन करके कोई भी फांसीवादी राज्य लम्बे समय तक टिका रह सकता है। वास्तव में आधुनिकता की यह समस्या भारत सहित तीसरी दुनिया के समाजो में इसके पूर्व ढाँचे  में ही निहित है। इसके बीजो की तलाश हमें अंगेजो के आने से पहले की भारतीय ग्राम संरचना में करनी होगी।

19वीं सदी में भारतीय समाज की आर्थिक सामाजिक संरचना

छोट-छोटे गावं में  बसा भारत ब्रिटिशो के आने से पूर्व कई अर्थो में आबाद था। आक्रमणकारी आये ,गये ,लड़ाइयां होती रही तख्त और ताज बदलते रहे लेकिन गावं नही बदले। वे अपने अर्थतंत्र में आत्मनिर्भर थे। जरूरतो की लगभग सारी चीजे खुद ही पैदा कर लेते और मेहनत मजदूरी में ब्यस्त रहते। गावं की सामाजिक व्यवस्था पर धर्म का जबरदस्त प्रभाव था। वे उसकी सीमा लांघ कर आगे बढ़ने की बात सोच भी नही सकते थे। सामन्तवादी ब्यवस्था के कारण राजा सर्वे सर्वा जरूर थे ,लेकिन गावं की भूमि पर उनका कोई अधिकार नही था। भूमिपर अधिकार गावं का होता था। राजा को उसका कर भार देने के बाद शेष सारी उपज गावं के ही काम में लायी जाती थी।

गावं में किसानेा के अतिरिक्त बढ़ई ,लोहार, कुम्हार, जुलाहा, मोची , धोबी , तेली, हज्जाम ,जैसे मजदूर किस्म के लोग भी रहते थे। लेकिन यह भी गावं की ही जरूरतो को पूरा करने के लिए खटते थे। ग्राम समुदाय में कर्मकारो का भी एक वर्ग होता था जो हलखोर का काम करते थे, जो अछूत समझे जाते थे। इनमें से अधिकांश देश की उन आदिम निवासियों के वंशज थे , जिनको समूल विनिष्ट करने के बदले ,प्राचीन काल में हिन्दू समाज ने आत्मसात कर लिया था। ’’(भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि -ए0आर0 देसाई, पृष्ठ 7-8) लोगो के व्यवसाय जातियों के आधार पर तय होते थे। वे वंश परम्परागत निर्बाध रूप से चलते थे। व्यक्ति का कोई महत्व नही था। परिवार और जाति ही सब कुछ थे। बाहरी दुनिया से इन समुदायों का लेन-देन या विनिमय नाम मात्र का होता था। आवागमन के साधन बहुत ही कम थे।

“सदियों तक गावं की सामाजिक और बौद्धिक स्थिति अनुर्वर अन्धविश्वासपूर्ण, संकुचित और रूग्ण बनी रही। ये गावं आर्थिक प्रवाह हीनता सामाजिक प्रक्रियावाद और सांस्कृतिक अन्धेपन के अलग-अलग दुर्ग थे , लगभग सारा भारतीय समाज इन्ही स्वायत्तशासी स्वपर्याप्त स्वसृत गाॅव में केन्द्रीयभूत था, प्राचीन देव देवियों  ,संकुचित ग्रामीण जातीय चेतना और एक स्थायी दृष्टिबोध के शिकंजे में युगों तक पड़ा रहा”। (भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि पेज 16)  इन ग्राम समाजो में जाति व्यवस्था को धर्म का संरक्षण था इसलिए एक ओर स्वधर्म निष्ठा बढ़ती गयी दूसरी समाज निष्ठा कम होती गयी। लोगो की दृष्टि में अपना कुल और अपनी जाति-पात वही सबकुछ थे। धर्म निष्ठा में भी अंन्धविश्वास और अज्ञान का अंश अधिक था। रूढि़या बलवती थी। कर्मकाण्ड, मन्त्र तन्त्र, सगुन अपशगुन , जारण मारण का बाजार गर्म था। जाति उपजातियों ने समाज को विच्छिन्न कर देने में  सफलता पायी थी।

 अंग्रेजो का आगमन , भारतीय ज्ञानोदय तथा पुर्नजागरण

सन् 1827 तक अंग्रेजो का सारे भारत पर अधिकार हो चुका था। यह भारतीय इतिहास की एक नयी परिघटना थी उस समय तक इग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति हो चुकी थी, तथा तेजी से पूंजीवादी विकास हो रहा था। अंग्रेजो ने जड़ हो चुकी भारतीय ग्राम समाजो को विनिष्ट करने में काफी हद तक सफलता पायी। “ जहाँ एक ओर अंग्रेजो ने भारतीय समाज को व्यापक क्षति पहुॅचाई , प्राचीन हस्त कला शिल्प को नष्ट किया दूसरी ओर उन्होने प्राचीन जड़ हो चुकी ग्राम संरचनाओ को काफी हद तक तोड़ा भी। उनकी इस दोहरी भूमिका में विनाश के साथ विकास भी था”। ( कार्ल मार्क्स ,भारत संबंधी लेख- पी.पी.एच.) इस प्रकार उन्होने भारत में पूंजीवादी विकास के रास्ते खोल दिये। यद्यपि भारतीय समाज में अंग्रेजो की साकारात्मक भूमिका पर आज भी विवाद है। सन् 1857 में  अंग्रेजो के खिलाफ भारतीय सामंती ताकतो के अंतिम प्रतिरोध युद्ध को कुचल दिया गया तथा अंग्रेजो ने सारे देश पर अधिकार जमा लिया। इसी दौर में भारतीय नव जागरण प्रारम्भ हुआ। इसके पीछे अंगे्रजी शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका थी। राजाराम मोहन राय ,विवेकानन्द ,आचार्य केशव चन्द्र सेन आदि इसके प्रवर्तक बने।

“हेनरी विलियम डेरोजियो" (1909-31) ने 1926 में  बंगाल में  ’’यंग बंगाल आन्दोलन”  की स्थापना की। ऐग्लो इण्डियन  डेरोजियो हिन्दू कालेज में अध्यापक थें उन्होने अपने शिष्यों तथा अनुयायियो को स्वतंत्र विवेक से सोचने , मुक्ति समानता तथा स्वाधीनता से प्रेम करने एवं सत्य की पूजा करने का पाठ पढ़ाया। यंग बंगाल आन्दोलन के समर्थक तथा करीब-करीब सारे पुर्नजागरण के पुरोधा अंग्रेजी भाषा तथा सभ्यता से काफी प्रभावित थे। परन्तु उन्होने जो मुद्दे उठाये यथा सती प्रथा का विरोध , विधवा विवाह ,महिलाओ की शिक्षा आदि वे उच्च वर्ग तथा स्वर्ण जातियों से सम्बन्धित थे। महाराष्ट्र में अवश्य ज्योतिबा फूले तथा उनकी पत्नी सावित्री बाई फूले ने दलित तथा पिछड़े वर्ग की महिलाओं की शिक्षा उनके पुनः विवाह आदि के मुद्दो को उठाया। उन्होनें जाति व्यवस्था ,छुआछूत आदि का विरोध भी किया। इसके अलावा अगर हम अंन्य सुधारको को देखते हैं तो उन्होंने  अस्पृश्यता का विरोध तो किया परन्तु उन्होने हिन्दु वर्ण व्यवस्था को कभी चुनौती नही दी, इसलिए यह भारतीय नवजागरण अधूरा था। जाति व्यवस्था आज भी भारतीय समाज की त्रासदी बनी हुयी है। अंग्रेजी शिक्षा ने भारत में  नया मध्य वर्ग उत्पन्न किया, राष्ट्रवाद की भावना पैदा की। जिसके फलस्वरूप ’’भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ। जिसने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया। भारतीय नव जागरण यूरोप की तरह क्रान्तिकारी नही था। यूरोप में इस दौर में ब्यापक धर्म सुधार आन्दोलन चले, “मार्टिन लूथर” तथा कालविन ने ईसाइयत के रूढ़वादी सिद्धान्तो को चुनौती दी जिससे प्रोटोस्टेण्ट सम्प्रदाय का जन्म हुआ। जिसने पूरे यूरोप में पूंजीवादी विकास को सुगम बनाया। हमारे देश में भी अंग्रेजी भाषा ,शिक्षा , रीति-रिवाज का प्रचार प्रसार तो अवश्य हुआ परन्तु उसने कभी भी समाज के जातीय ढांचे  को चुनौती नही दी। आज भारतीय समाज में  जिस फांसीवादी तथा गैर आधुनिकता का उभार देख रहे है  उसकी जड़ो में यही आधा अधूरा नव जागरण है। वास्तव में ’’आधुनिकता के लिए संघर्ष की परियोजना ’’ भारतीय समाज का आज भी मुख्य कार्यभार बना हुआ है। जवाहर लाल नेहरू भारतीय पुर्नजागरण के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि माने जाते थे। एक ऐसा समाज तो पूरी तरह से तकनीकी से मूल्यों विचारो से गैर आधुनिक था , वहां पर आधुनिकीकरण एक कठिन काम था। निश्चित रूप से वह देश को ’’आधुनिक मन्दिरो के रूप में विकसित करना चाहते थे। बड़े-बड़े बाँध  तकनीकी संस्थान , प्रयोगशालायें  परम धार्मिक मन्दिरो की तरह आधुनिकता के ये मन्दिर ’’अछूतो ,अंकिंचनो ’’ के लिए नही थे। फिर यह आधुनिकता क्या है ? मशीन उपकरण शहरीकरण ,उपग्रह तथा परमाणु उर्जा संस्थान परन्तु आज जो आधुनिकता विकसित हुयी उसकी स्थिति यह है कि “इसरो” के वैज्ञानिक अध्यक्ष रंगराजन उपग्रह छोड़ने से पहले मन्दिर में पूजा पाठ करते हैं एक ओर हम मंगलयान भेज रहे हैं तो दूसरी ओर खाप पंचायतो में तालिबानी हुक्म से प्रेमी जोड़ो को फांसी पर लटकाया जा रहा है। तमाम आधुनिक वैज्ञानिक तथा तकनीकी संस्थानो के बावजूद मध्य युगीन बर्बर मूल्य मान्यताये आज भी समाज में मौजूद है । वैज्ञानिक मनोवृत्ति विकसित करने का प्रयास कभी नही किया गया। पिछड़े मूल्यों और मान्यताओं से समझौता किया गया जो आज भी जारी है।

भारतीय समाज में फांसीवाद की प्रमुख अभिलक्षणिकतायें

पारिवारिक संरचना-फिल्मो ,टी.वी. सिरियलो में भारतीय परिवार चाहे जितने सामुदायिक तथा खुशहाल दिखलाई पड़ते हो परन्तु एकल अथवा संयुक्त परिवार का ढांचा आज भी सामंती है। परिवारो में जनतंत्र का घोर अभाव है। भारतीय समाज के सभी वर्गो में आज भी शादी विवाह शिक्षा, नौकरी में  अभिभावको का भारी हस्ताक्षेप मौजूद रहता है। स्त्रियों के लिए यह संरचना किसी कारावास से कम नही हैं। ज्यादातर परिवार महिलाओ की आर्थिक स्वतंत्रता के घोर विरोधी है। आर्थिक मजबूरियों  में ही उन्हे वे आजादी देने को विवश हुए। जाति व्यवस्था को सबसे ज्यादा संरक्षण परिवारो में  ही प्राप्त है। अगर परिवारो में लोकतांत्रिक मूल्य मौजूद नहीं  है तो वे व्यक्ति का मानस भी गैर लोकतांत्रिक बनाते हैं । यही कारण है कि समाज में फांसीवाद को भारी समर्थन मौजूद है।

जातिगत संरचना-
धार्मिक कट्टरता और जातिवाद भारतीय फांसीवाद के दो चेहरे हैं । हिन्दु वर्ण व्यवस्था के खिलाफ अनेक विद्रोह , धर्म परिवर्तन , तथा आरक्षण की व्यवस्था इसे तोड़ नही पायी। अक्सर समाज में बौद्विको तथा राजनीतिज्ञो का एक बड़ा तबका जातीय फांसीवाद के सहारे धार्मिक फांसीवाद से लड़़ना चाहता है , वास्तव में ये लोग जाने अनजाने फांसीवादी मूल्यों की ही हिफाजत कर रहे हैं। आज जातीय फांसीवाद ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को असफल कर दिया है। उ0प्र0, बिहार तथा अन्य अनेक प्रदेशो में जातीय राजनीति के साथ--साथ वंशवाद भी फल -फूल रहा हे। जातीय फांसीवाद से संघर्ष किये बिना धार्मिक कट्टरता से संघर्ष नही किया जा सकता क्योकि दोनो ने आपस में गठजोड़ कर लिया है। वामपंथी राजनीति तथा सास्कृति कर्म में लगे ढ़ेरो लोग चाहे साम्प्रदायिक न भी हो परन्तु वे भी अपने व्यक्तिगत जीवन शादी विवाह में अपनी जातीय परम्पराओ के प्रति गहरी निष्ठा व्यक्त करते रहते हैं ।

भारतीय मध्यवर्ग - 
आजादी के बाद से नब्बे के तथाकथित के आर्थिक सुधारो के फलस्वरूप भारत में  विशाल मध्यवर्ग पैदा हुआ है जो यूरोप की कुल आबादी से बड़ा है। यही मध्यवर्ग आज देश का सबसे बड़ा उपभोक्ता भी है। इसमें  जनमत को प्रभावित करने की क्षमता है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि समाज के इस सबसे बड़े मुखर तबके का फांसीवाद को जबरदस्त समर्थन प्राप्त है। 12 जून 1975 में इन्दिरा गांधी  ने आपात काल की घोषणा की थी। सारे विरोधी दलो पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। प्रेस पर कड़ी सेंसरशिप लागू कर दी गयी थी। बहुसंख्यक बुद्धिजीवियों और उनके आस-पास फैले शिक्षित मध्य वर्ग ने आपात काल का लेशमात्र भी विरोध नही किया। यह मध्यवर्ग अपनी विचारधारात्मक आस्थाओ की पोल खोलते हुए झुकने के लिए कहे जाने पर रेगने के लिए तैयार हो गया था। प्रसिद्ध चित्रकार ’’मकबूल फिदा हुसैन ’’,ने इन्दिरा गांधी को दुर्गा के रूप में चित्रित करते हुए तैल चित्रो की श्रृंखला तैयार की। साल भर पहले तक यही हुसैन जे.पी. के संसद मार्च के प्रमुख भागीदार थे। 19 महीने बाद आपात काल की समाप्ति के बाद आम चुनाव में इन्दिरा गाँधी की भारी पराजय का जश्न भी इस मध्यवर्ग ने मनाया। 1980 में इन्दिरा गाँधी  की सत्ता में  पुनः वापसी हो गयी। मध्यवर्ग तथा भारतीय जनता ने उनके लोकतंत्र निलंबन के अपराधो को इतनी जल्दी माफ कर दिया। 6 दिसम्बर 1992को हिन्दु कट्टरपंथियों ने लाखो की भीड़ जुटा कर उ.प्र. के अयोध्या में  चैदहवी सदी के एक मस्जिद को ध्वस्त कर दिया। इस घटना के बाद देश व्यापी दंगे शुरू हो गये। सन् 2003 में  गुजरात में भयंकर राज्य प्रयोजित दंगे हुए जिसमें भारी पैमाने पर अल्पसंख्यको का नरसंहार हुआ। इसके बावजूद नरेन्द्र मेादी तथा भाजपा गुजरात में  चुनाव विजयी होती रही। सन् 2013 में संघ परिवार ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। वे भारी जन समर्थन से सत्ता में आये तथा संघ परिवार ने समूचे भारतीय समाज में  अपनी फांसीवादी मुहिम शुरू कर दी। ऊपर की उपरोक्त सारी घटनाये यही दर्शाती है कि आज भारतीय सामाजिक ढांचे में फांसीवाद  को भारी समर्थन प्राप्त है।

सामुदायिकता बनाम आधुनिकता, तथा फांसीवाद के प्रतिरोध की सम्भावनायें   

अगर आज हम सम्पूर्ण विश्व में अमेरिकी बर्बरता देख रहे हैं तो वह साम्राज्यवादी राजसत्ता की बर्बरता है। ज्यादा से ज्यादा यह कहा जा सकता है कि इस बर्बरता को अमेरिकी समाज के एक तबके का समर्थन हासिल है। लेकिन 11 सितम्बर 2001 के बाद वहां अमेरिका के अन्दर वैसी सामाजिक बर्बरता देखने को नही मिली जैसी गुजरात में दिखलायी पड़ी। कोई यह कह सकता है कि गुजरात भी राजसत्ता ही का कारनामा था। लेकिन यह बात पूरी सच्चाई का बयान नही करती। अमेरिका की राजसत्ता भी वहां  के समाज के अन्दर ऐसे दंगे नही करा सकती , जिसमें  11 सितम्बर जैसे हादसे के बाद हजारो अमेरिकी मुसलमानो का कत्लेआम हो अमेरिकी राजसत्ता को अमेरिका की बाहर की बर्बरता को कुछ जनसमर्थन प्राप्त है। इसके मुकाबले गुजरात की बर्बरता स्वयं एक सामाजिक बर्बरता थी जिसे सियासी ताकतो और राजसत्ता की सह मिली थी। ऐसी राजनैतिक शह के पीछे भी समाज की सोच और बनावट का ही हाथ है। यहाँ दंगो के बाद वोट की फसल काटी जा सकती है। इसलिए अमेरिका और भारत के इन मिलते जुलते दिखायी देने वाले जड़ में एक बुनियादी फर्क है।
    
सामाजिक बर्बरता के उदाहरण पश्चिमी समाजो में  खत्म होते जा रहे हैं । वहां नस्लवाद भी है, संस्कृतियों और समुदायो के बीच भेदभाव भी है। लेकिन वहां रूआण्डा, बोस्निया ,गुजरात आज के यमन ,इराक ,लीबिया जैसे सामाजिक गृह युद्धो और सामुदायिक कत्लेआम के नमूने देखने को नही मिलते। आज सामुदायिकता की तारीफ तथा आधुकिता की आलोचना इस “उत्तर आधुनिक” समय की मुख्य विशेषता बन गयी है। आधुनिकता पर यह आरोप है कि उसने पुराने सामुदायिक जीवन को तहस नहस करके समुदायों की जैविक संरचना को तोड़ फोड़ कर उन्हे उद्योग , बाजार और शहर की धूप में सूखने के लिए छोड़ दिया। सामुदायिक जीवन का सारा रस जाता रहा।

इस ’’पूर्व आधुनिक सामुदायिकता’’ का रस किसके लिए मीठा था? यह सवाल अक्सर पूछा तक नही जाता। जवाब देने की बात तो दूर। महात्मा गांधी ’’रामराजऔर ’’ग्राम स्वराजकी बात किया करते थे। गावं की जिन्दगी को सादगी ,अच्छाई , मेहनत और इन्साफ का नमूना बताया करते थे। उनके लिए यह बड़ा मसला नही था कि उसी गावं में  दलित को क्या जगह मिली है। छोटी जातियां किस तरह रहती हैं ? भीमराव अम्बेडकर ने यह सवाल उठाया था। जब उन्होने हिन्दुस्तान के गावं की बनावट को ही दलितो के खिलाफ बताया तो उनकी उॅगली बहुत बेबाक ढंग से पूर्व आधुनिकता पर उठी थी। वास्तव में  सामुदायिकता का रस चन्द लोगो के लिए मीठा था। बाकी के लिए बेहद कड़वा था। यह उन्हे क्यो महसूस नही होती ? इसकी वजह शायद इस बात में  छिपी है ’’ उत्तर आधुनिकता ’’उस पश्चिम में पैदा हुयी जो आधुनिकता से तंग व परेशान थे। आधुनिकता ने पश्चिम में जो रूप धरा है , उसमें बेहिसाब खामियां हैं, ज्यादातर इस वजह से है कि आधुनिकता अभी तक पूँजीवाद के आँगन में  पली बढ़ी है। उसका यह स्वरूप पश्चिम के लोगो पर भारी पड़ने लगा है। आधुनिकता के आलोचना और उसके विकल्पो के खोज पश्चिम के लिए स्वभाविक है। सवाल यह है कि जिस बोझ से पूर्व अभी दबा ही  नही उससे मुक्त होने के लिए वह क्यो छटपटायेगा ? आज भारतीय समाज के ज्यादातर हिस्से पूर्व आधुनिक सामुदायिकता के बोझ तले दबे हैं । 

यदि देश के किसी कोने में  पंचायत यह फैसला सुनाती है कि जाति की सीमा लाघ कर अपनी मर्जी से शादी करने वाले दो नौजवान लोगो को पेड़ से लटका कर फांसी दे दी जाये, तो यह देश के एक कोने की बात नही, इस किस्म की सामुदायिकता पूरे देश में  पसरी पड़ी है , भले ही उसके फैसले पूरे देश में एक तरह के अत्याचारी और बर्बर न हो। जो लोग सामुदायिकता को अच्छी आदत या परम्परा मानते हैं, वे व्यक्ति पर होने वाले समुदाय के अत्याचार पर आंखें मूंद  रहे हैं । वे एक सामुदायिकता के द्वारा दूसरे प्रकार की सामुदायिकता पर ढाए जाने वाले जुल्मो से भी आंखें मूंद रहे हैं और बात इस पर भी खत्म नही होती जो समुदाय खुद दूसरे समुदायो के अत्याचार तले दबे हैं वे भी अपने सदस्यो के व्यक्तिगत अधिकार छीन लेने के मामले में आतातायी समुदाय से पीछे नही है। तीसरी दुनिया की दुर्दशा के वजह से इन्सान की जान यहाँ सस्ती है। इस दुर्दशा की मोटी वजह उपनिवेशो के जमाने से आज तक के साम्राज्यवाद ,हुकूमत ,प्रभुत्व और साजिशे बतलायी जाती है। बेशक यह सच्चाई का केवल एक ही हिस्सा इस जवाब में पकड़ में आ जाता है लेकिन यह पूरी सच्चाई नही है। 1994 मे मार्च से जुलाई के बीच केवल सौ दिनो में रूआण्डामें पांच से दस लाख के बीच “तुत्सी” समुदाय के लोग मारे गये। “हुतु” समुदाय के लोगो ने इनका नरसंहार किया। “हुतु” रूआण्डा का बहुसंख्यक समुदाय है और “तुत्सी” अल्पसंख्यक। अफ्रीका में जाति संहार और हुए हैं आज भी हो रहे हैं  लेकिन “तुत्सी” लोगो का 1994 का संहार पूरे इतिहास में सबसे बड़े संहारो में से एक है।

जुलाई 1995 में  सर्बिया के  हथियार बन्द दस्तो ने बोस्निया के हजारो मुसलमनो का सफाया किया। 15 जुलाई के बीच बीस हजार से अधिक लोगो को मारा गया। इसमें औरते बच्चे भी शामिल थे औरतो से बलात्कार के लिए कैम्प लगाये गये,अभी भी मृतको की सही संख्या ज्ञात नही है बीस हजार लोग आज भी लापता है।

गुजरात 2002 में  यही अपने देश में  हुआ जिसमें करीब तीन हजार से ऊपर मुसलमान मारे गये औरतो से बलात्कार हुआ ,इससे पहले 1984 में देश भर में सिक्खो का कत्लेआम हुआ था।

आज इराक ,यमन ,सीरिया लीबिया में इस्लामिक स्टेट (आई.एस.) के हथियार बन्द दस्ते बड़े पैमाने पर शिया मुसलमानो व कुर्दो का कत्लेआम कर रहे हैं । प्राचीन इराक और यमन की प्राचीन सभ्यताओ के अवशेषो और कलाकृतियों को नष्ट किया जा रहा है। बोकोहरम सहित अनेक अन्य अतिवादी संगठन पाकिस्तान ,अफगानिस्तान ,नाइजीरिया, तंजानिया सहित विश्व के बड़े हिस्से में व्यापक रूप से कत्लेआम कर रहे हैं । यह सत्य है कि एक समय में  अलकायदा तथा तालिबान को अमेरिका ने धन तथा हथियार देकर सोवियत रूस से लड़ने के लिए तैयार किया था। परन्तु यह आज की सच्चाई का केवल एक पहलू है, अगर आज एक ’’खलीफा सुन्नी राज”  की स्थापना का स्वप्न देखा जा रहा है तो इसकी जड़े 14वीं सदी में इस्लाम के जन्म के समय शिया सुन्नी विवाद में देखी जानी चाहिए। वास्तव में  इस्लामिक स्टेट ,अलकायदा ,तालिबान आदि की बर्बरता की जड़े उनके ही समाज और इतिहास में ही है। क्या इस किस्म की दरिंदगी ,जातियों तथा समुदायों के सफाये की जड़ भी उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद में  ही खोजी जानी चाहिए ? या तीसरी दुनिया  की समाजो की पूर्व आधुनिक बनावट का इससे लेना देना है। पूर्व आधुनिक समाजो में  नाइंसाफी ,गैर बराबरी और हिंसा के रिश्ते समाज की रग-रग में  बसे होते हैं । अगर हिसाब लगाया जाये तो एटम बम गिराये बगैर लाखो लोगो को हिटलर के गैस चैम्बर में मारे बगैर पूर्व आधुनिकता अधिक लागो को मारती है अधिक जुल्म ढाती है और बेपनाह कहर बरपा करती है। कुछ नमूने हम उपर देख चुके हैं ।


और अन्त में - भारत के जिस फाॅसीवाद का उभार हम देख रहे हैं उसकी जड़े यहाँ के पूर्व आधुनिक समाज में है, हमारे सम्पूर्ण सामाजिक ढाचे में फांसीवाद आसानी से स्वीकार्य है। यही कारण है कि संघ परिवारकी राजनीति आज भारतीय समाज में सफल होती दिख रही हे। देश के अधिकांश राजनैतिक दल किसी न किसी रूप में फांसीवाद  का समर्थन करते हैं । वामपंथियों तक ने कभी जाति व्यवस्था के खिलाफ गंभीरता से संघर्ष नही किया। आज भारत जैसे  पूर्व आधुनिक समाजो के रंग-रग में  बसी हिंसा के खिलाफ व्यापक संघर्ष की जरूरत है। भारत के लिए आम तौर पर तीसरी दुनिया  के लिए सामाजिक आधुनिकता तक पहुचाना  निहायत जरूरी है। इसके बिना इंसाफ तथा तरक्की दोनो की मुहिम नाकाम रहेगी। सामाजिक आधुनिकता ,आधुनिकता के राजनैतिक आर्थिक दायरो और संरचनाओे को सहारा देगी और उससे सहारा पायेगी। इस राजनैतिक आर्थिक संरचनाओ को पूंजीवादी आधुनिकता के पार जाना होगा। आज तीसरी दुनिया  के ज्यादातर मुल्को में पूँजीवाद कायम हो चुका है, लेकिन सामाजिक आधुनिकता प्रायः नदारत है। पूँजीवाद ने यहाँ  की पूर्व आधुनिक सामाजिक संरचना से समझौता कर रखा है यही आज इन समाजो की असली त्रासदी है।  

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